शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

'' देखिये आज रात बिग टॉस'

बड़ी देर से चाय का ग्लास लिए कुछ सोचता बैठा था . तमाम बड़े लोगों की तरह दिल्ली के म्याज़ का मुआयना कर रहा था. रविश की तरह सोचने की कोशिश कर रहा था, क्या ये शहर वाकई अपने अन्दर कोई कहानी छुपाये बैठा है? या बस सब कुछ यांत्रिकी के उसूलों के तर्ज़ पर हो रहा है, सब बस कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्योंकि कुछ न कुछ करना चाहिए, क्योंकि हमें ऐसा बताया गया है .

स्कूल से निकलते बच्चे, व्यस्त दिखने की कोशिश करती उनकी माएं, सुबह - सुबह अपनी लिपस्टिक संभालने की कोशिश करती उनकी कोशिशें , दूध के ट्रक , किसी दिलजले आशिक के कमरे से अत्तौल्ला खान की आ रही आवाजें, सारा मसाला था १ मोडरेट चिन्तक बनने के लिए, या कि १ पोस्ट मोदार्निस्ट कहानीकार बनने के लिए. समस्या बस इतनी थी कि भावनाओं के इतने बड़े केनवास में से किस १ को चुनुं? इसी उधेड़बुन में चाय का तीसरा कप जब ख़त्म हुआ, तो चाय वाला खडग सिंह चिल्लाया - ''का भैया आज ऑफिस नाही जाये का है का, सुबह से खाली पेट चाय सुडके जात हो, मतारी बाबू तू लोग को घरिया से भेज काहे देत हैं, कोई शूर ही नहीं तुम लोगों को जीने का ''. मैंने कहा नहीं खरग जी नाय्ट शिफ्ट है, बस अब जा रहा हूँ, कुछ सोच रहा हूँ. खडग ने बैरंग जवाब दिया - '' फिर तो सोचो, पेपर निकालत हाउ न तुम, सोचो, सोचो, सोचे का चाही, बाकी हमका इतना सोचे का टाइम नाही, करने से ही फुर्सत नहीं, ससुर फाटल रहत है, सोचे का टाइम ही नहीं मिळत, सोचो सोचो''

उठकर पैसे देने को हुआ तो खडग बोला '' ए भैया, इ बताओ ससुर हमके तो सोचे का टाइम नाही, इसलिए नाही सोचत, पर इ जिनका काम ही सोचे का है, सोचे के कमाई खात हैं, इ मनमोहन ससुर , जब जब सोचत है, हम गरीबन की गांड फटे की आवाज़ काहे आत है, कुछ लिखो इसपर, खबर लिखो'' खडग की बात ही सोच रहा था कि बगल में रखा १ टीवी राखी का जलवा दिखा रहा था, फिर पीछे से वीणा मल्लिक भी आई, फिर १ डरावनी सी आवाज़ आई '' देखिये आज रात बिग टॉस''

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