धीरे-धीरे परिवार वैयक्तिक हो gaye, और माँ को उसके घूंघट से आजादी मिली. और मैं घूँघट को भूल गया. कभी-कभी इसकी पुनरावृति भी होती थी जब पापा के बड़े भाई लोग घर आते, माँ को फिर घूंघट ओढना पड़ता लेकिन वो उसे निबाह देती थी ये समझकर की १-२ दिन की ही बात है.
खैर जब दिल्ली विश्विद्यालय आया और स्त्री-विमर्शों से पाला पड़ने लगा, जब ''सिमोन दी बोआर'' को पढ़ा तब समझ में आया कि ये ghoonghat कितनी बड़ी साज़िश है, पुरुषों की महिलाओं के प्रति,समझ में आने लगा की क्यों मेरी माँ का विद्रोह मुझे प्रभावित करता था.ये भी कि एक खुला समाज चाहे उसमे कुछ बुराइयां भी हो बेहतर होता है vanispat एक बंद समाज के.दिल्ली विश्वविद्यालय के माहौल में तो इस चीज़ की जगह ही नहीं थी, साथ ही लडकियां आपका मुंह नोचने को भी तैयार रहती थी, यदि आपने कोई भी gendar bais बात की, आपके ऊपर कोलेग की डिसिप्लिनरी कमिटी भी बैठ सकती थी. वहां से निकला तो नौकरी की जदोजेहद और मिडिया हाउस और फिमेल डोमिनेसन से भी पाला पड़ा, और स्त्री विमर्श के १ नए पहलु से वास्ता पड़ा की स्त्रियाँ सिर्फ शोषित ही नहीं होती, शोषण भी करती हैं, इससे पहले मैं समझता था कि उनकी भूमिका शोषित होने और शोषण से अपना बचाव करने तक सीमित है, ये नया रंग था.
देश यूँ तो समृद्ध हो रहा है(bakaul पवार साहब) लेकिन मेरी जेब ने विद्रोह कर दिया, मुझे रहने के लिए १ शहरनुमा गाँव चुनना पड़ा, मैं दिल्ली के एक ऐसे इलाके में रहता हूँ, जहाँ गाँव और शहर १ साथ जुड़ते हैं. कहने को तो ये गाँव है, पर मुख्य सड़क जहाँ बड़े-बड़े माल और थिएटर हैं, बड़ी-बड़ी बसें हैं. इस गाँव से आधा किलोमीटर भी दूर नहीं.यहाँ फिर उस घूंघट से पाला पड़ा ऐसे इलाके में जब माँ को गज भर घूंघट और बेटी को जींस में, अपने सड़क पार वाले हमउम्रों की तरह देखता हूँ तो अच्छा लगता है माँ की घूंघट में कुढ़न और बेटी को लेकर आँखों में संतोष देखकर अच्छा लगता है.