रविवार, 15 मई 2011

सन्डे के बहाने

बचपन में हर सन्डे माँ से इस बात पे झगडा करता था कि सन्डे के दिन स्कूल बंद क्यों होता है ? ये झगडा तब और विशाल हो जाता था जब नयी पैंट या जूते ख़रीदे जाते और उसके अगले दिन सन्डे होता. धीरे धीरे ये तो समझ आ गया कि सन्डे को छुट्टी होती है पर सन्डे कितने दिनों के बाद आता है, ये तब भी कन्फ्यूज करता रहा. इसका मेरे नामुराद दोस्तों ने ( बचपन से अब तक जितने भी दोस्त मेरे बने सब के सब नामुराद हैं, या कहें मुझे नामुरादों कि सोहबत बहुत पसंद है) बहुत फायदा उठाया. जब भी उनका स्कूल बंक करने का मन होता, मुझे स्कूल के गेट तक पहुँचने से पहले बताते कि आज तो सन्डे है, ham गलती से स्कूल आ गए हैं, आ गए हैं तो अब इस समय का सदुपयोग किया जाये, बेर चोरी करने चला जाए. बेर ऐसी चीज़ थी जो मुझे कटाई ज़रा भी पसंद नहीं थी, पर फिर भी चोरी कि हर वारदात में मैं शामिल रहा, १ बार तो १ कुत्ते से भी कटवाया इस चोरी के चक्कर में....

उम्र बढ़ी अब सन्डे का हिसाब रखना आ गया था साथ ही शैतानियाँ भी बढीं. शैतानी एक ऐसी चीज़ थी जो पापा के घर में होते नहीं हो सकती थी,सन्डे को वो घर में होते थे. तो दिन भर उनपर कुढ़ता रहता था कि इतने बड़े होकर भी छुट्टी लेते हैं, काम पे नहीं जाते. पापा माहौल को टाईट तो रखते थे पर उन्हें हमारे बाल मन का ख्याल भी था. बीच बीच में कभी मार्केट जाने के बहाने, कभी पड़ोस में ही रहने वाले हमारे चाचाजी से मिलने चले जाते थे,फिर वो समय हम तीनो भाई बहनों का होता था, सन्डे का असली मज़ा उस समय हम लूटते थे. १ दूसरे पर तकिये उछलकर, १ दूसरे के बाल खींचकर, थप्पड़-वगैरा भी कभी कभी चल जाते थे. पापा आते, मैं बड़प्पन का फ़र्ज़ अदा करते हुए, थोड़ी बहुत दांत सुनता मामला रफा दफा.

सन्डे के दिन एक और अच्छी चीज़ होती थी- रंगोली. पहले तो रंगोली देखने बैठते थे, महज़ इसलिए ताकि पढ़ाई से जो १ आध घंटे की निजात मिल जाए, लेकिन उसके बाद अमिताभ बच्चन को देखने के लिए,रंगोली के जिस एपिसोड में अमिताभ का गाना न दिखाय जाता,वो रंगोली बेकार लगती. लगातार १०-१२ साल की रंगोली ने म्युसिक के लिए पता नहीं कब समझ पैदा कर दी. बहुत सारे ऐसे मौके आये जब किसी गाने की धुन तो दिमाग में बज उठती थी पर न ही बोल, न ही गाने वाले का नाम पता होता था,बोल और नाम पता लगाने के लिए विविध भारती गौर से सुनना शुरू किया, और अब तो मशालाह अपन फ़िल्मी गीतों के एन्स्यक्लोपिदिया हैं.

दिली विश्वविद्यालय आने पर, हर दिन सन्डे की तरह गुज़ारा, जीवन की पाठशाला से अनुभव लेने के चक्कर में असल पाठशाला के भीतर जाने का कभी ख्याल ही नहीं आया. अपने हिस्से के सारे सन्डे मैंने कॉलेज के ३ सालों में बिता डाले, इश्वर ने न्याय किया, बोला रुक तुझे मिडिया में पटकता हूँ, और मना सन्डे, तो साहब हुआ यूँ की लाख मिन्नतों और आरजुओं के बावजूद हमारा सन्डे घर पर बिताना किसीको रास नहीं आया,तो हुज़ूर हम हैं की अभी अभी ऑफिस से लौटने के बाद कंप्यूटर पर कर रहे हैं खिटपिट, बगल में बज रहे हैं महेंद्र कपूर और आपको छोड़े जाते हैं , १ मशहूर जापानी कविता की दो लाइनों के साथ -

याद है कब तुमने रेत पर चलते हुए छू लिया था चुपके से इन हाथों को, अब भी बरकरार है वो छुअन, ऐसे ही किसी सन्डे की शाम थी वो

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

'' देखिये आज रात बिग टॉस'

बड़ी देर से चाय का ग्लास लिए कुछ सोचता बैठा था . तमाम बड़े लोगों की तरह दिल्ली के म्याज़ का मुआयना कर रहा था. रविश की तरह सोचने की कोशिश कर रहा था, क्या ये शहर वाकई अपने अन्दर कोई कहानी छुपाये बैठा है? या बस सब कुछ यांत्रिकी के उसूलों के तर्ज़ पर हो रहा है, सब बस कुछ न कुछ कर रहे हैं, क्योंकि कुछ न कुछ करना चाहिए, क्योंकि हमें ऐसा बताया गया है .

स्कूल से निकलते बच्चे, व्यस्त दिखने की कोशिश करती उनकी माएं, सुबह - सुबह अपनी लिपस्टिक संभालने की कोशिश करती उनकी कोशिशें , दूध के ट्रक , किसी दिलजले आशिक के कमरे से अत्तौल्ला खान की आ रही आवाजें, सारा मसाला था १ मोडरेट चिन्तक बनने के लिए, या कि १ पोस्ट मोदार्निस्ट कहानीकार बनने के लिए. समस्या बस इतनी थी कि भावनाओं के इतने बड़े केनवास में से किस १ को चुनुं? इसी उधेड़बुन में चाय का तीसरा कप जब ख़त्म हुआ, तो चाय वाला खडग सिंह चिल्लाया - ''का भैया आज ऑफिस नाही जाये का है का, सुबह से खाली पेट चाय सुडके जात हो, मतारी बाबू तू लोग को घरिया से भेज काहे देत हैं, कोई शूर ही नहीं तुम लोगों को जीने का ''. मैंने कहा नहीं खरग जी नाय्ट शिफ्ट है, बस अब जा रहा हूँ, कुछ सोच रहा हूँ. खडग ने बैरंग जवाब दिया - '' फिर तो सोचो, पेपर निकालत हाउ न तुम, सोचो, सोचो, सोचे का चाही, बाकी हमका इतना सोचे का टाइम नाही, करने से ही फुर्सत नहीं, ससुर फाटल रहत है, सोचे का टाइम ही नहीं मिळत, सोचो सोचो''

उठकर पैसे देने को हुआ तो खडग बोला '' ए भैया, इ बताओ ससुर हमके तो सोचे का टाइम नाही, इसलिए नाही सोचत, पर इ जिनका काम ही सोचे का है, सोचे के कमाई खात हैं, इ मनमोहन ससुर , जब जब सोचत है, हम गरीबन की गांड फटे की आवाज़ काहे आत है, कुछ लिखो इसपर, खबर लिखो'' खडग की बात ही सोच रहा था कि बगल में रखा १ टीवी राखी का जलवा दिखा रहा था, फिर पीछे से वीणा मल्लिक भी आई, फिर १ डरावनी सी आवाज़ आई '' देखिये आज रात बिग टॉस''