मंगलवार, 7 सितंबर 2010

थोडा सा कुछ दिल से,बस ऐसे ही

बचपन से देखता था कि बड़े पापा के घर घुसते ही, तमाम चाचियाँ, घूँघट ओढ़ लेती थी, दरवाजों की ओट ले लेती थीं. समझ नहीं आता था की अभी जो इतने तेज़ ठहाके चल रहे थे, उनको क्या हो गया. पिता से बहुत ज़्यादा लगाव के चलते, कभी माँ के बहुत करीब तो नहीं हो पाया, और इसका मेरी माँ को दुःख भी है कि saare बच्चे पापा से ही चिपके rahte हैं, अपने कुछ गुणों के कारण मुझे बहुत ज्यादा प्रभावित करती थी मसलन, उसका घूँघट चाचियों कि तुलना में छोटा होता था, वो ऊँची एंडी के सेंडल भी आँगन में पहन कर घूमती थी और उन मसलों पर जिनपर औरतों से चुप रहने की अपेक्षा मिथिलांचल के परिवारों में की जाती है, उनपर बोलती थी, धीमी आवाज़ में, दरवाजों की ओट से hi लेकिन बोलती थी.
धीरे-धीरे परिवार वैयक्तिक हो gaye, और माँ को उसके घूंघट से आजादी मिली. और मैं घूँघट को भूल गया. कभी-कभी इसकी पुनरावृति भी होती थी जब पापा के बड़े भाई लोग घर आते, माँ को फिर घूंघट ओढना पड़ता लेकिन वो उसे निबाह देती थी ये समझकर की १-२ दिन की ही बात है.

खैर जब दिल्ली विश्विद्यालय आया और स्त्री-विमर्शों से पाला पड़ने लगा, जब ''सिमोन दी बोआर'' को पढ़ा तब समझ में आया कि ये ghoonghat कितनी बड़ी साज़िश है, पुरुषों की महिलाओं के प्रति,समझ में आने लगा की क्यों मेरी माँ का विद्रोह मुझे प्रभावित करता था.ये भी कि एक खुला समाज चाहे उसमे कुछ बुराइयां भी हो बेहतर होता है vanispat एक बंद समाज के.दिल्ली विश्वविद्यालय के माहौल में तो इस चीज़ की जगह ही नहीं थी, साथ ही लडकियां आपका मुंह नोचने को भी तैयार रहती थी, यदि आपने कोई भी gendar bais बात की, आपके ऊपर कोलेग की डिसिप्लिनरी कमिटी भी बैठ सकती थी. वहां से निकला तो नौकरी की जदोजेहद और मिडिया हाउस और फिमेल डोमिनेसन से भी पाला पड़ा, और स्त्री विमर्श के १ नए पहलु से वास्ता पड़ा की स्त्रियाँ सिर्फ शोषित ही नहीं होती, शोषण भी करती हैं, इससे पहले मैं समझता था कि उनकी भूमिका शोषित होने और शोषण से अपना बचाव करने तक सीमित है, ये नया रंग था.


देश यूँ तो समृद्ध हो रहा है(bakaul पवार साहब) लेकिन मेरी जेब ने विद्रोह कर दिया, मुझे रहने के लिए १ शहरनुमा गाँव चुनना पड़ा, मैं दिल्ली के एक ऐसे इलाके में रहता हूँ, जहाँ गाँव और शहर १ साथ जुड़ते हैं. कहने को तो ये गाँव है, पर मुख्य सड़क जहाँ बड़े-बड़े माल और थिएटर हैं, बड़ी-बड़ी बसें हैं. इस गाँव से आधा किलोमीटर भी दूर नहीं.यहाँ फिर उस घूंघट से पाला पड़ा ऐसे इलाके में जब माँ को गज भर घूंघट और बेटी को जींस में, अपने सड़क पार वाले हमउम्रों की तरह देखता हूँ तो अच्छा लगता है माँ की घूंघट में कुढ़न और बेटी को लेकर आँखों में संतोष देखकर अच्छा लगता है.




रविवार, 21 मार्च 2010

दोस्त बेजुबान हो गया हूँ

अभी - अभी उसने मुंह से गों - गों की आवाजें निकालना सीखा था. रातों को कंप्यूटर पे सर धुनते वक़्त उसकी खिलखिलाहट ध्यान बंटाती थी . ये ख्याल कि इस एकांत जाग्रति का मेरे अलावा भी कोई साक्षी है, अच्छा लगता था . कोमलता के लिए अब भी जगह बची हुई है, ये भीतर थोडा आश्चर्य भी पैदा करता था. गंभीर प्रकृति बनाये रखने के अपने दुराग्रह के बावजूद चेहरे पर हंसी कि १ पतली लकीर आ ही जाती थी. गग्गु नाम था उसका .

उसकी ज़िन्दगी के सबसे ख़ूबसूरत दिन वो होते थे, जब बाप ने दारू न पी हो, और माँ पे पागलपन का दौरा न पड़ा हो. .अफ़सोस के ऐसे दिन गिनने के लिए हाथों कि उँगलियाँ भी बहुत बड़ा पैमाना साबित हो जाये. उन दिनों वो सरे घर में रेंगता फिरता था. किसी कि गोदी में टिकना नहीं चाहता था . ऐसा लगता था जैसे वो ज्यादा से ज्यादा किलकारियां, अपनी नन्ही मुठियों में क़ैद कर लेना चाहता हो. आते जाते मैं भी उसके सर पे हाथ मार दिया करता था .उस दांपत्य में, कोई एक अच्छी चीज़ थी तो गग्गु

.आज उसकी ज़िन्दगी में समीकरण उलट गए थे. बाप ने सिर्फ थोड़ी सी पी थी, माँ पागलपन के चरम पे थी. १२ घंटे पहले उसने दूध पिया था, पर फिर भी वो रो नहीं रहा था. मैं बगल से गुज़रा तो उसे बहलाने कि कोशिश कि तो बाप कि गोद में सिमट गया. फिर कातर आँखों से मुझे देखने लगा. माँ का दौरा जितना बढ़ता ९ महीने का गग्गु उतना ही गंभीर होता जाता. वो क्षण भी आया जब मां को थाने वाले अस्पताल ले जाने के लिए आये. गग्गु को उसका बाप मेरी गोद में छोड़ गया है, अभी भी वो इतना ही गंभीर है, भूख के कारण अब भी नहीं रोया.

यकीं मानिये दिल पसीज गया है उस बच्चे के साथ ये अत्याचार होता dekhkar. लिखने भी इसी धुनक में बैठा हूँ, लगा कि यदि न लिखूं तो शायद मैं ही विक्षिप्त हो जाऊँगा. corporate भट्टी ने इतना चूस लिया है, कि थकान से नींद भी नहीं आ रही.इवनिंग शिफ्ट से आने के बाद सुबह मुझे मोर्निंग शिफ्ट पे जाना है. ५ बजे मेरी गाडी आएगी और उसके बाद गग्गु को मैं फिर किसी और कि गोद में डालकर निकल जाऊंगा. गग्गु कि गोद बदलती रहेगी और वो लगातार गंभीर होता जायेगा.

.कहाँ ख़त्म करूँ ? क्या इसी बात पे कि मुझे गग्गु के पैदा होने का अफ़सोस है..... या अपने माँ - बाप का शुक्रिया अदा करते हुए, जिनकी बदौलत हमें गोद बारबार नहीं बदलनी पड़ी. या कि इस बात पे कि मेरे मोबाइल पे गाडी वाले का फ़ोन आ गया है, इसलिए बंद करता हूँ, मुझे राखी सावंत ढूँढने में अपना कैरिअर बना है, मेरी ज़िन्दगी में इन इमोशनल बकवासों क लिए जगह नहीं.. .
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मंगलवार, 16 मार्च 2010

ऐ मनिहारी वाला .....


ये आवाज़ अब सुनाई नहीं देती. अब कोई भी हर एक माल ५ रुपये या १० रुपये में बेचने नहीं आता, मर्द हो तो साइकिल पे, औरत माथे पे टोकरी उठाये हुए हमने इसे बचपन में बहुत देखा है. टिकली, सिन्दूर, बिंदी, अचार पापड़ भी, और प्लास्टिक के हाथी, घोड़े तक. सब ५ रुपये में. जाड़े की दोपहरों में पड़ोस की किसी तली में बैठकर गुप्प मारती औरतें, गर्दन उचककर उसके टोकरे में झाँकने की कोशिश करती. लड़कियां आँगन के पिछवाड़े से निकलकर, मान के पहलु में कड़ी हो जाती थी. आवाज़ सिर्फ मनिहारी वाले की सुनाई देती थी, औरतों लड़कियों की नहीं, मुन्ना सुन लेगा तो प्लास्टिक के हाथी घोड़ों के लिए जिद करेगा

आज जाने क्यों ये नज़ारे बड़ी शिद्दत से याद आने लगे ? लगा कि क्यों न ये मनिहारी कि टोकरी मियां ब्लॉग के दरवाज़े पर भी रख दी जाये. सब कुछ बेचा जाये, अगरम-बगरम, कविता कहानी,उपन्यास, सब कुछ. एक दुसरे से बातें भी कर लिया करेंगे, इस बनियागीरी के दौरान. अच्छा लगे तो फिर दरवाज़े पे बिठाना नहीं तो दूर से ही चलता कर देना. और सामान फिर भी ख़राब निकल जाये तो अगले हफ्ते के फेरे में वापस कर देना . अभी ऐसा करो की ये रख लो, पिछली गली में ४ बेचे हैं, ये भी बिक जाता, बड़ी मुश्किल से आपके लिए बचाया है.

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