उम्र बढ़ी अब सन्डे का हिसाब रखना आ गया था साथ ही शैतानियाँ भी बढीं. शैतानी एक ऐसी चीज़ थी जो पापा के घर में होते नहीं हो सकती थी,सन्डे को वो घर में होते थे. तो दिन भर उनपर कुढ़ता रहता था कि इतने बड़े होकर भी छुट्टी लेते हैं, काम पे नहीं जाते. पापा माहौल को टाईट तो रखते थे पर उन्हें हमारे बाल मन का ख्याल भी था. बीच बीच में कभी मार्केट जाने के बहाने, कभी पड़ोस में ही रहने वाले हमारे चाचाजी से मिलने चले जाते थे,फिर वो समय हम तीनो भाई बहनों का होता था, सन्डे का असली मज़ा उस समय हम लूटते थे. १ दूसरे पर तकिये उछलकर, १ दूसरे के बाल खींचकर, थप्पड़-वगैरा भी कभी कभी चल जाते थे. पापा आते, मैं बड़प्पन का फ़र्ज़ अदा करते हुए, थोड़ी बहुत दांत सुनता मामला रफा दफा.
सन्डे के दिन एक और अच्छी चीज़ होती थी- रंगोली. पहले तो रंगोली देखने बैठते थे, महज़ इसलिए ताकि पढ़ाई से जो १ आध घंटे की निजात मिल जाए, लेकिन उसके बाद अमिताभ बच्चन को देखने के लिए,रंगोली के जिस एपिसोड में अमिताभ का गाना न दिखाय जाता,वो रंगोली बेकार लगती. लगातार १०-१२ साल की रंगोली ने म्युसिक के लिए पता नहीं कब समझ पैदा कर दी. बहुत सारे ऐसे मौके आये जब किसी गाने की धुन तो दिमाग में बज उठती थी पर न ही बोल, न ही गाने वाले का नाम पता होता था,बोल और नाम पता लगाने के लिए विविध भारती गौर से सुनना शुरू किया, और अब तो मशालाह अपन फ़िल्मी गीतों के एन्स्यक्लोपिदिया हैं.
दिली विश्वविद्यालय आने पर, हर दिन सन्डे की तरह गुज़ारा, जीवन की पाठशाला से अनुभव लेने के चक्कर में असल पाठशाला के भीतर जाने का कभी ख्याल ही नहीं आया. अपने हिस्से के सारे सन्डे मैंने कॉलेज के ३ सालों में बिता डाले, इश्वर ने न्याय किया, बोला रुक तुझे मिडिया में पटकता हूँ, और मना सन्डे, तो साहब हुआ यूँ की लाख मिन्नतों और आरजुओं के बावजूद हमारा सन्डे घर पर बिताना किसीको रास नहीं आया,तो हुज़ूर हम हैं की अभी अभी ऑफिस से लौटने के बाद कंप्यूटर पर कर रहे हैं खिटपिट, बगल में बज रहे हैं महेंद्र कपूर और आपको छोड़े जाते हैं , १ मशहूर जापानी कविता की दो लाइनों के साथ -
याद है कब तुमने रेत पर चलते हुए छू लिया था चुपके से इन हाथों को, अब भी बरकरार है वो छुअन, ऐसे ही किसी सन्डे की शाम थी वो