मंगलवार, 16 मार्च 2010

ऐ मनिहारी वाला .....


ये आवाज़ अब सुनाई नहीं देती. अब कोई भी हर एक माल ५ रुपये या १० रुपये में बेचने नहीं आता, मर्द हो तो साइकिल पे, औरत माथे पे टोकरी उठाये हुए हमने इसे बचपन में बहुत देखा है. टिकली, सिन्दूर, बिंदी, अचार पापड़ भी, और प्लास्टिक के हाथी, घोड़े तक. सब ५ रुपये में. जाड़े की दोपहरों में पड़ोस की किसी तली में बैठकर गुप्प मारती औरतें, गर्दन उचककर उसके टोकरे में झाँकने की कोशिश करती. लड़कियां आँगन के पिछवाड़े से निकलकर, मान के पहलु में कड़ी हो जाती थी. आवाज़ सिर्फ मनिहारी वाले की सुनाई देती थी, औरतों लड़कियों की नहीं, मुन्ना सुन लेगा तो प्लास्टिक के हाथी घोड़ों के लिए जिद करेगा

आज जाने क्यों ये नज़ारे बड़ी शिद्दत से याद आने लगे ? लगा कि क्यों न ये मनिहारी कि टोकरी मियां ब्लॉग के दरवाज़े पर भी रख दी जाये. सब कुछ बेचा जाये, अगरम-बगरम, कविता कहानी,उपन्यास, सब कुछ. एक दुसरे से बातें भी कर लिया करेंगे, इस बनियागीरी के दौरान. अच्छा लगे तो फिर दरवाज़े पे बिठाना नहीं तो दूर से ही चलता कर देना. और सामान फिर भी ख़राब निकल जाये तो अगले हफ्ते के फेरे में वापस कर देना . अभी ऐसा करो की ये रख लो, पिछली गली में ४ बेचे हैं, ये भी बिक जाता, बड़ी मुश्किल से आपके लिए बचाया है.

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